चोटी की पकड़–76
आगंतुकों ने स्थान का नाम न सुना था। जरा देर करके आए थे। वे दूसरे के पास गए, साथ-साथ यह भी गए।
यूसुफ ने कहा, "तालतला?"
"हाँ, बाबू।" बग्घीवाले ने जवाब दिया।
"क्या लोगे?"
"डेढ़ रुपया।"
"वह क्या है थोड़ी दूर पर। डेढ़ रुपया बहुत है। ठीक-ठीक बतलाओ।"
"अरे साहब, हम भी साथ हो जाएंगे, क्या बुरा है? तै कर लीजिए। आप बड़े आदमी हैं। पीछे बैठिए। हम आगे, पिछोड़े रहेंगे। आधा आप दीजिए, आधा हम।"
बात यूसुफ को जँच गई। पूछा, "आप लोग भी वहीं चलेंगे?"
'जी हाँ," एक ने कहा, "कुछ दूर और चलना है। पैदल चले जाएंगे।" "कहाँ से आ रहे हैं?"
"उलूबड़िया से।"
एक साथी मुसलमान था। यूसुफ मान गए। गाड़ी तै की। सवा रुपए की ठहरी। तीनों बैठे। मुसलमान दोस्त असल में हिंदू था, फ्रेंचकट दाढ़ी रखाए हुए। चुपचाप बैठ रहे। गाड़ी चलती गई।
पहले के गए हुए आदमी ने राज ले लिया। यूसुफ उससे कहकर नहीं गए। बतलाने जा रहे थे। राज लेकर और यह कहकर, "आप फँसाए गए हैं अपने किसी दोस्त से, उन्होंने अपने नाम की जगह आपका नाम लिखाया है
और किसी मामले में फँस गए हैं; मगर आप हमारे पूछने का राज उन्हें न दीजिएगा, वे कहाँ गए थे, क्यों गए थे,
किससे-किससे मिले थे, आगे का क्या इरादा है, उनसे दोस्त की हैसियत से मालूम करके हमें बतला दीजिएगा, तो बच जाइएगा, कुछ फायदा भी होगा, वे कोई हों, एक आदमी हैं
, अपने को पहले बचाएँगे, सरकारी आदमी खास तौर से आपको फँसा देंगे और खुद पर मारकर अलग हो जाएंगे। याद रखिएगा। हम आपसे फिर मिलेंगे।"
यह कहकर वह आदमी अलग हो गया। दूर चलकर खड़ा हुआ। बातचीत हो चुकी थी कि यह आदमी अगर उधर जाएगा तो पीछा करनेवाले साथी दो घंटे के अंदर उस जगह पहुँच जाएंगे। यह साथी दो घंटे तक प्रतीक्षा करेगा। यह पढ़ा-लिखा मुसलमान था।